Tuesday, December 21, 2021

Vikas Ke Sidhant विकास के सिद्धांत

 

Vikas Ke Sidhant

विकास के सिद्धांत

विकास से प्रमुख सिद्धांत निम्न प्रकार से है |

निरन्तरता का नियम  

यह नियम बताता है कि विकास एक न रुकने वाली प्रक्रिया है। माँ के गर्भ से ही यह प्रारम्भ हो जाती है तथा मृत्यु पर्यन्त निरन्तर चलती ही | रहती है। एक छोटे से नगण्य आकार से अपना जीवन प्रारम्भ करके हम सबके व्यक्तित्व के सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि का सम्पूर्ण विकास इसी निरन्तरता के कारण भली-भाँति सम्पन्न होता रहता है।

वृद्धि और विकास की गति की दर एक सी.नहीं रहती 

यद्यपि विकास बराबर होता रहता है, परन्तु इसकी गति सब अवस्थाओं में एक जैसी नहीं रहती। शैशवावस्था के शुरू के वर्षों में यह गति कुछ तीव्र होती है, परन्तु बाद के वर्षों में यह मन्द पड़ जाती है।
पुनः किशोरावस्था के प्रारम्भ में इस गति में तेजी से वृद्धि होती है परन्तु यह अधिक समय तक नहीं बनी रहती।  पाती। 

वैयक्तिक अन्तर का नियम 

इस नियम के अनुसार बालकों का विकास और वृद्धि उनकी अपनी वैयक्तिकता के अनुरूप होती है। वे अपनी स्वाभाविक गति से ही वृद्धि और विकास के विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ते रहते हैं और इसी कारण उनमें पर्याप्त विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। कोई भी एक बालक वृद्धि और विकास की दृष्टि से किसी अन्य बालक के समरूप नहीं होता।

विकास क्रम की एकरूपता 

विकास की गति एक जैसी न होने तथा पर्याप्त वैयक्तिक अन्तर पाए जाने पर भी विकास क्रम में कुछ एकरूपता के दर्शन होते हैं। इस क्रम में एक ही जाति विशेष के सभी सदस्यों में कुछ एक जैसी विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। उदाहरण के लिए मनुष्य जाति के सभी बालकों की वृद्धि सिर की ओर से प्रारम्भ होती है। इसी तरह बालकों के गत्यात्मकऔर भाषा विकास में भी एक निश्चित प्रतिमान (Pattern) और क्रम के दर्शन किए जा सकते है।

सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का नियम

विकास और वृद्धि की सभी दिशाओं में विशिष्ट क्रियाओं से पहले उनके सामान्य रूप के दर्शन होते है। उदाहरण के लिए अपने हाथों से कुछ चीज पकड़ने से पहले बालक इधर उधर यूँ ही हाथ मारने या फैलाने की चेष्टा करता है।

एकीकरण का नियम 

विकास की प्रक्रिया एकीकरण के नियम का पालन करती है। इसके अनुसार बालक अपने सम्पूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना सीखता है। इसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है। सामान्य से विशेष की ओर बदलते हुए विशेष प्रतिक्रियाओं तथा चेष्टाओं को इकठे रूप में प्रयोग में लाना सीखता है। को उदाहरण, फिर के उंगलियों लिए एक को बालक और फिर पहले, हाथ पूरे हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।

 भविष्यवाणी की जा सकती है 

एक बालक की अपनी वृद्धि और विकास की गति को ध्यान में रख कर उसके आगे बढ़ने की दिशा और स्वरूप के बारे में भविष्यवाणी जा सकती है। उदाहरण के लिए एक बालक की कलाई की हड्डियों का एक्स किरणों से लिया जाने वाला चित्र यह बता सकता है कि उसका आकार प्रकार आगे जा कर किस प्रकार का होगा। 

विकास की दिशा का नियम

इस नियम के अनुसार विकास की प्रक्रिया पूर्व निश्चित दिशामें आगे बढ़ती है। कुप्पूस्वामी ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि विकास Cephalocaudal और Proximo-Distal क्रम में होता है। 
(Cephalo-Caudal) क्रम का विकास लम्बवत रूप में (Longitudinal Direction) सिर से पैर की ओर होता है। सबसे पहले बालक अपने सिर और भुजाओं की गति पर नियंत्रण करना सीखता है और उसके बाद फिर टाँगों को। इसके बाद ही वह अच्छी तरह बिना सहारे खड़ा होना और चलना सीखता है। 
(Proximo-Distal) क्रम के अनुसार विकास का क्रम केन्द्र से पारम्भ होता है, फिर बाहरी विकास होता है और इसके बाद सम्पूर्ण. विकास। उदाहरण के लिए, पहले रीड़ क हड्डी का विकास होता है और उसके बाद भुजाओं, हाथ तथा हाथ की उँगलियों का तथा तत्पश्चात् इन सबका पूर्ण रूप से संयुक्त विकास होता है।  

विकास लम्बवत् सीधा न हो कर वर्तुलाकार होता है  

बालक का विकास लम्बवत् सीधा (Linear) न हो कर वर्तुलाकार (Spiral) होता है।

विकास में परिवर्तन होता है 

मानव शिशुओं के विकास का पहला नियम यह है कि इसमें गुणात्मक परिवर्तन (Qualitative Changes). तथा परिमाणात्मक परिवर्तन (Qualitative Changes) दोनों होते है। जैसे-जैसे शिशुओं की उम्र बढ़ती जाती है उनके सीखने की क्षमता में परिवर्तन, सांवेगिक नियंत्रण में परिवर्तन, किसी विशेष भाषा को सीखने की क्षमता में परिवर्तन आदि होते है और ये सभी गुणात्मक परिवर्तन के उदाहरण है। गुणात्मक परिवर्तनों के अलावा बालकों में परिमाणातमक परिवर्तन, जैसे शरीर की बनावट में परिवर्तन, आकार में परिवर्तन, शरीर के भीतरी अंगो में परिवर्तन आदि भी होता है।

प्रारंभिक विकास परवर्ती विकास से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है

मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि बालको के प्रारंभिक विकास (Early Development) तुलनात्मक रूप से बाद के सालों में हुए विकास या परवर्ती विकास की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण होता है

विकास परिपक्वता तथा सीखने की उपज है

जन्म के बाद बालको के सम्पूर्ण विकास में परिपक्वता तथा प्रशिक्षण दोनों की भूमिका प्रधान हो जाती है। सच्चाई यह है कि बालक में विकास सही अर्थ में परिपक्वता तथा प्रशिक्षण दोनों की अंत क्रिया पर निर्भर करता है।

विकास की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में सुख शांति एक समान नहीं होती है 

कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धांत Kohalberg Ka Naitik Vikas Sidhant

 

कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धांत Kohalberg Ka Naitik Vikas Sidhant

  • अमेरिकन मनोवैज्ञानिक कोहलबर्ग (1927-1987) ने ही 1958 में नैतिक विकास का सिद्धांत प्रतिपादित किया।
  • इन्होंने नैतिकता के विकास को सिद्ध करने के लिए नैतिकता की 11 कहानियाँ ली थी।
  • कोहलबर्ग इन्हीं कहानियों को बच्चों को सुनाकर नैतिकता के स्तर को मापते थे।
  • इन कहानियों में से सबसे प्रसिद्ध हाइनज (हिंज/ Heinz) की कहानी प्रसिद्ध है। इन्होंने 20 वर्ष तक बच्चों के साथ साक्षात्कार कर (कहानी सुनाकर बच्चों से प्रश्न पूछना) निर्णय निकाला व यह नैतिक विकास का सिद्धांत दिया।
  • इस सिद्धांत में कोहलबर्ग ने नैतिक विकास के सिद्धांत (Principle Of Moral Development) की कुल छः अवस्थाएँ बताई तथा इन अवस्थाओं को तीन स्तरों में बाँटा हैं

(1) प्री-कनवेशनल स्टेज/ पूर्व पारम्परिक/ पूर्व परम्परागत अवस्था (Pre Conventional Stage)- Kohalberg Ka Naitik Vikas Sidhant

👉 समय : शैशव अवस्था/ 4 से 10 वर्ष 
इस अवस्था में बालक में नैतिकता का अभाव होता है परन्तु बालक का नैतिक विकास प्रारम्भ हो जाता है तथा बालक अपने परिवार के वयस्क सदस्यों से नैतिकता की बातें सीखता है। वह जैसा देखता है वैसा ही सीखता है अर्थात् बाह्य घटना के आधार पर ही वह सही व गलत बताता है। बालक में तर्क एवं चिंतन का आधार बाहरी घटना होती है। इस स्तर की दो अवस्थाएँ है

(I) आज्ञा एवं दण्ड की अवस्था (Stage Of Order And Punishment)-

इस अवस्था में बालक आज्ञा इसलिए मानता है कि उसे दण्ड ना मिल जाए।

(Ii) अहंकार की अवस्था/ साधनात्मक सापेक्षवादी उन्मुखता (Stage Of Ego/ Instrumental Relativist Orientation) 

इस अवस्था में बालक में अहम् का भाव रहता है।

(2) कनवेशनल स्टेज/ पारम्परिक/ परम्परागत अवस्था (Conventional Stage) 

👉 समय :  बाल्य अवस्था/ 10 से 13 वर्ष
इस अवस्था में बालक का सर्वाधिक नैतिक विकास होता है। इस अवस्था में बालक अपने समाज, धर्म, राष्ट्र एवं संस्कृति के आधार पर एवं इनके द्वारा बताये नैतिक मूल्यों के आधार पर नैतिकता का विकास करता है। इस अवस्था की भी दो अवस्थाएँ मानी है

(I) प्रशंसा की अवस्था/ उत्तम लड़का अच्छी लड़की अवस्था (Stage Of Appreciation/ Good Boy Nice Girl Orientation)-

इस अवस्था में बालक प्रशंसा पाना चाहता है।

(Ii) सामाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान की अवस्था (Stage Of Respect Towards Social System)-

बालक समाज द्वारा निर्धारित व्यवस्थाओं तथा नियमों के प्रति सम्मान रखता है।

(3) पोस्ट-कनवेशनल स्टेज/ उत्तर पारम्परिक अवस्था (Post Conventional Stage) 

👉 समय : किशोर अवस्था / 13 वर्ष के बाद
इस अवस्था में बालक का नैतिक विकास लगभग पूर्ण एवं बालक नैतिकता के लिए आत्मनिर्भर बन जाता है। इसके बाद बालक स्वयं नैतिक मूल्यों का निर्धारण करता है। इस अवस्था में भी दो अवस्थाएँ शामिल है

(I) सामाजिक समझौते की अवस्था (Stage Of Social Compromise)-

बालक को कई परिस्थितियों में समाज से समझौता करना पड़ता है।

(Ii) विवेक की अवस्था/ सार्वत्रिक नीति परक सिद्धांत उन्मुखता (Stage Of Conscience/ Universal Ethical Principle Orientation)-

इस अवस्था में अपने नैतिक नियमों को प्रोत्साहित करने एवं आत्मनिंदा से बचने का अभिप्रेरण अधिक होता है। यह अवस्था उच्चतम सामाजिक स्तर की उच्चतम अवस्था होती है। इस अवस्था के अंतर्गत किशोरों में सार्वत्रिक नैतिक नियम की नैतिकता विद्यमान रहती है।

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